ग्रंथकार कविवर बनारसीदास जी का परिचय : भाग -2

“यह लेख श्री मति डॉ रंजना जैन, दिल्ली द्वारा लिखा गया है |”

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इस लेखमाला के प्रथम भाग में हमने “कविवर बनारसीदास जी” के बचपन के बारे में जाना। आइये, आज हम जानते हैं उनकी युवावस्था के बारे में, उन्हीं की जुबानी…

युवावस्था में प्रवेश :

जब कवि ने युवावस्था में प्रवेश किया, उस समय देश में मुसलमानों का शासन चल रहा था। उनके अत्याचारों से परेशान देशवासी अपने बेटे-बेटियों की शादी छोटी उम्र में कर लेते थे। बनारसीदास जी का विवाह भी संवत् 1654 में 11 वर्ष में खैराबाद के निवासी ‘कल्याणमल जी’ की बेटी के साथ संपन्न हुआ। बड़ी धूमधाम के साथ खडगसेन अपनी पुत्रवधु को विदा कराकर घर लाये। लेकिन कर्मों की विचित्रता देखो ! जिस दिन पुत्रवधु घर आई , उसी दिन खडगसेन के घर बेटी का जन्म हुआ और बनारसीदास जी की नानी का देहांत हो गया !! इस सुख एवं दुःखमय प्रसंग का वर्णन कविवर के शब्दों में इसप्रकार है :

नानी-मरण, सुता-जनम,
पुत्रवधु-आगौन।
तीनों कारज एक दिन,
भये एक ही भौन।।
यह संसार-विडम्बना,
देख प्रगट दुःख-खेद।
चतुर-चित्त त्यागी भये,
मूढ न जाने भेद।।

विवाह के पश्चात् जिम्मेवारी के चलते पढाई तो लगभग खत्म हो गई। आर्थिक-विपन्नता के कारण परिवार-सहित इधर-उधर भटकते रहे , इस बीच बनारसीदास जी ने कोड़ियाँ खरीदने-बेचने का छोटा-सा काम किया। इस समय तक बनारसीदास जी 14 वर्ष के हो चुके थे। इकलौते पुत्र होने के कारण माता-पिता के बहुत लाड़ले थे।

जैसा कि युवावस्था कामान्धता के लिये प्रसिद्ध हैं , कविवर बनारसीदास जी भी इससे अछूते नहीं रहे। कुल की प्रतिष्ठा, धन-संपत्ति और आत्मसम्मान कामांध-पुरुष के लिये मायने नहीं रखता। इस समय शास्त्रज्ञान, माता-पिता और गुरुजनों की सीख निरर्थक सिद्ध होती है। बनारसीदास जी भी इस समय इतने कामान्ध हुये कि पढ़ाई- लिखाई छोड़कर उनके ऊपर एकमात्र विषयासक्ति का नशा-सा छा गया। वे स्वयं अपने बारे में लिखते हैं :

तजि कुल-कान लोक की लाज,
भयो बनारसि आसिखबाज।

माता-पिता से छिपाकर घर से मणि, रत्न और रुपये चुराकर विषयभोग पर खर्च करना उनकी आदत बन गई। यह सिलसिला इतना लंबा चला कि इस बीच कवि ने ‘नवरस’ विशेषरूप से शृंगार एवं वासनापरक लगभग एक हजार दोहों और चौपाईयों से युक्त एक पद्यमय-काव्यरचना भी की। जिसमें यद्यपि सभी रस थे; परन्तु आशिकी और संभोग- प्रधान कविताओं की अधिकता थी। कहा जाता है कि यदि आज वो रचना उपलब्ध होती, तो शृंगार-जगत् की सर्वश्रेष्ठ रचनाओं में अपना स्थान रखती।

यद्यपि बनारसीदास जी बहुत विवेकी थे , और समय-समय पर अपनी इस कामुक-प्रवृत्ति की निंदा भी करते थे और इससे छूटने का प्रयास भी करते थे , परन्तु चारित्र-मोहनीयकर्म का ऐसा प्रबल-उदय था कि उसके सामने उनका पुरुषार्थ हार जाता था। वे स्वयं लिखते हैं :

पोथी एक बनाई नई,
मित हजार दोहा चौपाई।।
तामैं नवरस रचना लिखी,
पै विशेष वर्णन आसिखी।
ऐसे कुकवि बनारसि भये,
मिथ्या-ग्रंथ बनाये नये।।
कै पढ़ना कै आसिखी,
मगन दुहुँ रस माँहि।
खान-पान की सुध नहिं,
रोजगार कछु नाहिं।।

ऐसा कब तक चला ? इस बारे में कवि लिखते हैं :

ऐसी दसा बरस द्वै रही,
मात-पिता की सीख न गही।
करी आसिखी पाठ सब पढ़े,
संवत सोलह सौ उनसठे।।

इसप्रकार भौतिक-प्रेम की चकाचौंध में दो वर्ष तक जीवन व्यतीत करते हुये एक बार अपनी पत्नी को लेने ससुराल गये और वहाँ एक माह तक सुखपूर्वक रहे। लेकिन घर लौटते समय पूर्वोपार्जित अशुभ-कर्मों के उदय में कवि को भयंकर कुष्ठ-रोग हुआ। रसिकहृदय बनारसीदास जी का सुंदर- शरीर रोग की दुर्गंध से भर गया। अंग-अंग में विस्फोटक अर्थात् बदबूदार- फोड़े हो गये। सभी संबंधी उनसे दूर हो गये , केवल पत्नी और सास ने इनकी सेवा की। कविवर बनारसीदास जी के शब्दों में :

भयौ बनारसिदास तन,
कुष्टरूप सर-संग।
हाड़-हाड़ उपजी विथा,
केस-रोम-भ्रुव- भंग।।
विस्फोटक अगनित भये,
हस्त-चरन चौरंग।
कोऊ नर साला-ससुर,
भोजन करहिं न संग।।
ऐसी अशुभ-दशा भई,
निकट न आवै कोई।
सासू और विवाहिता,
करहिं सेव तिय दोइ।।
जल-भोजन की लेहिं सुध,
देहिं आन मुख- माँहि।
ओखद° ल्यावहिं अंग में,
नाक मूँद उठ जाहिं।।

(विचार कीजिये कितनी असहनीय और वेदना से भरपूर भयानक-स्थिति रही होगी उस समय कवि की)

कईप्रकार की औषधियाँ बनारसीदास जी को दी गईं, पर उनकी पीड़ा कम होने के बजाय असह्य से असह्यतर होती चली गई। कुछ समय पश्चात् भाग्यवशात् एक नाई-चिकित्सक मिला ,और उसने इन्हें छह माहिने में स्वस्थ कर दिया। लेकिन ससुराल से लौटते समय ये अकेले ही आये , ससुरालवालों ने पत्नी को इनके साथ नहीं भेजा।

घर आकर पुनः आशिकी़ में मगन हो गये। लगभग चार महीने के बाद इनकी पत्नी वापस इनके पास आ गई, पर इनकी कामान्ध- प्रवृत्ति पर कोई रोक नहीं लगी।

किसी ने सच ही कहा है :

विसयासक्तचित्तानां,
गुणः को वा न नश्यति।
न वैदुष्यं न मानुष्यं,
नाभिजात्यं न सत्यवाक्।।

अर्थात् विसयासक्त-मनुष्य के सभी गुण नष्ट हो जाते हैं, विद्वत्ता ,विवेक और कुलीनता तो जैसे उससे छूमंतर हो जाती है।

सौभाग्य से इसी वर्ष बनारसीदास जी के एक कन्या का जन्म हुआ; परन्तु छह-सात दिन में ही वह कन्या तो चल बसी ,साथ ही बनारसीदास जी को दीर्घकालीन-ज्वर की पीड़ा हो गई। वैद्य ने उन्हें बीस दिन तक भोजन नहीं करने दिया। भूख से बेहाल बनारसीदास जी ने एक दिन रात के समय में सबके सो जाने पर आधा सेर (किलो) पूड़ियाँ उठाकर खा लीं। और संयोग की बात कि वे स्वस्थ भी हो गये। वे स्वयं लिखते हैं :

आध सेर की पूरी दोइ।
खाट हेट ले धरी दुराइ,
सो बनारसि भखी चुराइ।
वाही पथ सों नीकौ भयौ,
देख्यौ लोगनि कौतुक नयौ।

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अंधविश्वास के धनी :

कविवर बनारसीदास जी घोर-अंधविश्वासी थे। एक दिन एक सन्यासी ने कहा कि -“मेरे पास एक मंत्र है , एक वर्ष तक उसका विधिपूर्वक-जाप करने से एक वर्ष बाद एक स्वर्णमुद्रा प्रतिदिन दरवाजे पर मिलेगी।” फिर क्या बनारसीदास जी ने बहुत धन देकर तत्काल मंत्र लिया और जपना प्रारंभ कर दिया। एक वर्ष तक वे इस मायाजाल में फँसे रहे। एक साल बाद जब फूटी- कौड़ी भी हाथ नहीं लगी, तो पश्चात्ताप में भोजन-पानी भी छोड़ दिया। (इस घटना का उल्लेख कवि ने स्वयं किया है।)

अभी ये घटना बीते बहुत दिन नहीं हुये थे कि फिर एक साधु के मायाजाल में फँस गये। मुक्ति-प्राप्ति के अमर-आनंद का प्रलोभन देकर कुछ पूजन-सामग्री और शंख देकर उस साधु ने कहा कि “ये शिवजी की मूर्ति है , इसकी पूजा करने से मुक्ति मिलती है।”

बनारसीदास जी ने भावुकता में आकर शीघ्र उस मूर्ति को उठा लिया और शिवजी का जाप और अष्टद्रव्य से उस मूर्ति की पूजा करने लगे। यदि किसी दिन कोई भूल हो जाती, तो अगले दिन पश्चात्ताप करते और रूखा-भोजन करते। वे स्वयं लिखते हैं :

पूजैं तब भोजन करें,अनपूजैं पछिताइ।
तासु दण्ड अगले दिवस,रूखा-भोजन खाइ।।

घर में बिना किसी को बताये वे इस क्रिया को बहुत दिन तक करते रहे। ऐसी कई अंधविश्वास से भरी घटनाओं का उल्लेख कवि ने स्वयं किया है।

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पत्नियाँ और बच्चे :

बनारसीदास जी की तीन शादियाँ हुई। और तीनों ही पत्नियों से कुल मिलाकर नौ संतानें हुई। लेकिन दुर्भाग्यवश तीनों ही पत्नियाँ और सभी बच्चे एक-एक करके इनके सामने ही मरण को प्राप्त हुये। विचार करो कि जब एक संतान के मरण का दुःख भी असह्य होता है , तो सोचिये जिसकी नौ संतानें उसके सामने काल-कवलित हुई हों, उसकी वेदना और टीस का अनुमान लगाना भी कल्पना से परे है। कवि स्वयं लिखते हैं :

तीन विवाहीं भारजा,सुता दोइ सुत सात।
नौ बालक हुये मुए,रहे नारि-नर दोइ।
ज्यों तरुवर पतझार ह्वै,रहें ठूँठ से होइ।।

अर्थात् मेरे नौ बच्चे हुये; लेकिन एक भी जीवित नहीं रहा। केवल हम पति-पत्नी बचे, ठीक उसीप्रकार जैसे पतझड़ के आने पर सारे पत्तों के झड़ जाने पर पेड़ ठूँठ से खड़े रह जाते हैं।

लेकिन होनहार बलवान् ;और तीसरी पत्नी की मृत्यु से पहले कवि को संसार की असारता का भान होने लगा। राग से विराग की ओर मुड़ने का सामान उनके जीवन में घटनेवाली अनेक- मौतों और व्यापारादि में निराशाओं ने जुटा दिया था। लम्बे समय तक राग-रंग में रमनेवाले कविवर बनारसीदास जी ने अब वैराग्य की ओर प्रयाण किया।

एक दिन कविवर बनारसीदास जी अपनी मित्र- मंडली के साथ गोमती नदी के किनारे बैठे थे। शृंगार रस का ग्रंथ ‘नवरस’ उनके हाथ में था। और अपने मित्रों को उसके दोहे सुना रहे थे। अचानक अध्यात्म की ऐसी लहर आई कि उसने शृंगारिकता और भावुक- मनोवृत्ति को चकनाचूर कर दिया। अपनी कपोल-कल्पित कविताओं पर कवि को इतना पश्चात्ताप हुआ कि वह ‘नवरस’ का ग्रंथ कवि ने स्वयं अपने हाथों से गोमती नदी में बहा दिया। इसका वर्णन करते हुये कवि लिखते हैं :

एक दिवस मित्रह्न के साथ,
नौकृत पोथी लीन्ही हाथ।
नदी गोमती के बिच आइ,
पुल के ऊपर बैठे जाइ।।
वाचैं सब पोथी के बोल,
तब मन में ये उठी किलोल।
एक झूठ जो बोले कोइ,
नरक जाइ दुःख देखे सोइ।।
मैं तो कलपित-वचन अनेक,
कहैं झूठ सब, साँचु न एक।
कैसे बने हमारी बात,
भइ बुद्धि यह अकस्मात्।।
यह कहि देखन लागै नदी,
पोथी डार दइ ज्यों रदी।

उस दिन से बनारसीदास जी के जीवन की दिशा ही बदल गई। शृंगार का रसिक अब अध्यात्म का रसिक बन ग़या।

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