ग्रंथकार कविवर बनारसीदास जी का परिचय : भाग -3

“यह लेख श्री मति डॉ रंजना जैन, दिल्ली द्वारा लिखा गया है |”

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इस लेखमाला के पिछले दोनों भागों में हमने कवि के बचपन और युवावस्था के सांसारिक जीवन की झलक देखी। आइये आज हम देखते हैं उनके आध्यात्मिक जीवन की झलक !! उन्हीं की जुबानी…

निश्चयाभाषी होना :

सम्वत् 1680 में 37 वर्ष की अवस्था में कवि को ‘अरथमल जी ढोर’ का समागम मिला। उन्होंने ‘पांडे राजमल जी’ द्वारा लिखित ‘समयसार’ की टीका पढ़ने की प्रेरणा दी। कवि ने बड़ी लगन से उसका स्वाध्याय किया , लेकिन अध्यात्म का मर्म न समझने से वे स्वच्छंदी हो गये। परिणाम स्वरूप उनका झुकाव शुद्ध निश्चय नय की ओर हो गया , उन्हें क्रियाकाण्ड अत्यंत थोथा प्रतीत होने लगा।जप, तप, सामायिक, पूजन आदि सब छोड़कर एक मात्र आत्मतत्व पर ही उनकी दृष्टि स्थिर हो गई। इसका परिणाम ये हुआ कि लोग इन्हें *’खोसरामती’* यानि एक असंतुलित मत का अनुयायी कहने लगे। ऐसी अवस्था में कवि ने 12 वर्ष बिता दिये।

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दिगम्बरत्व का समर्थन :

एक दिन सौभाग्य से ‘पंडित रूपचंद जी पांडे’ से कवि की भेंट हुई। उनका गुणस्थान विवेचन पर प्रवचन सुनकर *बनारसीदास जी को ज्ञान और क्रिया का समन्वय अर्थात् निश्चय और व्यवहार का मेल समझ में आया। अनेकांत स्याद्वाद आदि सिद्धांतों का सच्चा स्वरूप समझ में आया। अब उन्हें क्रियाकाण्ड सर्वथा हेय नहीं आत्मकल्याण के मार्ग में उपयोगी लगने लगा।* इसके बाद कवि का ह्रदय कुछ शांत और स्थिर हुआ। स्वयं श्वेताम्बर संप्रदाय से होने के बाद भी न केवल दृढ़ता पूर्वक दिगम्बर पंथ को सही कहा बल्कि स्वीकार भी किया। बाद में कवि की आध्यात्मिक भावना इतनी प्रबल हो गई कि 1693 में समयसार जी को नाटक समयसार के रूप में सुन्दर पद्यों में आबद्ध किया , और समयसार नाटक के छंदों की धूम मचा दी। कवि का यह आध्यात्मिक ग्रंथ इतना लोकप्रिय हुआ कि घर-घर में समयसार की चर्चा होने लगी।

ग्याहरवीं शती से ही दिगम्बर साधुओं का लगभग अभाव सा हो गया था। और कविवर बनारसीदास जी के समय तक तो लोग दिगम्बर साधुओं को सिर्फ पुराणों में पढ़ा करते थे और साधुओं की चर्या के बारे में केवल अनुमान लगाया करते थे। उस समय धर्म की बागडोर परिग्रहधारी भट्टारकों के हाथ में थी। क्रियाकाण्ड को ही धर्म घोषित कर दिया गया था , अध्यात्म चर्चा को तो लोग बिल्कुल ही भूल गये थे। भट्टारकों की बात ही धर्म वाक्य के रूप में मानी जाती थी। कविवर बनारसीदास कुशाग्र बुद्धि के धनी तो थे ही, साथ ही जैन शास्त्रों का अध्ययन भी अच्छे से कर चुके थे , सो इस मायाचार को शीघ्र समझ गये। वे स्वयं आगे आये और इस थोथे क्रियाकाण्ड और परिग्रह की मान्यता का जमकर खंडन किया , और जनता के समक्ष धर्म का वास्तविक स्वरूप रखा।

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अंतिम समय :

यद्यपि कवि के मरणकाल के बारे में कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। लेकिन इस संबंध में एक किंवदंती प्रसिद्ध है कि अंतसम़य में उनका गला रूँध गया था। जिस कारण वे बोल नहीं सकते थे। उन्हें अहसास हो गया था कि मृत्यु का समय अब नजदीक है , सो ध्यान में लीन हो गये। लोगों ने समझ लिया अब ये दो-चार घंटे के मेहमान हैं। लेकिन जब समय अधिक निकल गया और प्राणान्त न हुआ तो आस-पास के लोग कहने लगे कि शायद कवि के प्राण परिवारीजनों के मोह में फँसे हुये हैं। कुछ लोग तो यहाँ तक कहने लगे कि जीवन भर धन के पीछे भागते रहे फिर भी उन्हें धन की प्राप्ति नहीं हुई , लगता है आज भी इनके प्राण उसी में अटके हुये हैं। अब जब तक इनके आगे दौलत की गठरी नहीं होगी तब तक इनके प्राण नहीं निकलेंगें।

कविवर बनारसीदास जी लोगों की इन मूर्खता पूर्ण बातों से विचलित हो उठे , पर शक्तिहीन इतने थे कि बोल तो न सके पर एक लेखनी के लिये लोगों को संकेत किया। बड़े प्रयत्न के बाद लोगों को उनका संकेत समझ में आया और उनको एक लेखनी लाकर दी। लेखनी पाकर कवि ने अपने जीवन का अंतिम छंद लिखा , जिसे पढ़कर लोगों की धारणा एकदम बदल गई। वह छंद इस प्रकार था :

ज्ञान कुतक्का हाथ मारि अरि मोहना।
प्रगट्यो रूप स्वरूप अनंत जु सोहना।।
जा परजै को अंत सत्य कर मानना।
चलै बनारसि दास फेर नहिं आवना।।

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रचनायें :

कविवर बनारसीदास जी की चार पद्यमय रचनायें आज उपलब्ध हैं , जो उनकी काव्यप्रतिभा और ज्ञानगरिमा को आज भी द्योतित कर रही हैं। जो इस प्रकार हैं:

1. नाममाला
2. बनारसी विलास
3. अर्द्धकथानक
4. समयसार नाटक

1. नाममाला :

यह एक पद्यबद्य कोश है , जिसमें 175 दोहे हैं। यह कवि की सर्वप्रथम रचना है। जो आश्विन सुदी दसमी सोमवार वि.संवत 1670 में जौनपुर में लिखी जा चुकी थी। इसके रचना काल के बारे में कवि स्वयं लिखते हैं :

सोरह सै सत्तरि समै,आसौ मास सित पच्छ।
विजै दसमी ससिवारतह,स्रवन नखत परतच्छ।।

2. बनारसी विलास :

इस ग्रंथ में कवि द्वारा समय – समय पर विविध विषयों पर विविध छंदों में रचित रचनाओं का संग्रह है। जिसमें धार्मिक कवितायें, आध्यात्मिक कवितायें, अनूदित कवितायें और उपदेश परक कवितायें संग्रहित हैं।

3. अर्द्धकथानक :

कविवर बनारसीदास जी की उपलब्ध रचनाओं में से ये तीसरी रचना है। यह समस्त भारतीय भाषाओं में प्रथम हिन्दी पद्यों में रचित “आत्मकथा”* है। कवि ने इसमें अपने जीवन के 55 वर्षों को अत्यंत सरल , संक्षिप्त और सत्यता के साथ प्रस्तुत किया है। इस कृति का नाम “अर्द्धकथानक” रखने का कारण बताते हुये कवि कहते हैं कि वर्तमान में मनुष्य की आयु 110 वर्ष मानी गई है , और इसमें 55 वर्ष की कहानी है इसलिये इसका “अर्द्धकथानक” नाम सार्थक है। अपनी भूलों , त्रुटियों और असफलताओं का वर्णन जितने सीधे और सरल स्पष्ट शब्दों में कवि ने किया कि इसको पढकर मानवमन श्रद्धा से कवि के चरणों में सहज झुक जाता है।

इस कृति में आत्मकथा के साथ-साथ ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनैतिक स्थिति का भी ऐसा उल्लेख किया है कि जिनसे आज भी इतिहास के कलेवर में एक सुंदर अध्याय और जोड़ा जा सकता है।

4. समयसार नाटक :

‘नाटक समयसार’ कवि की सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक और लोकप्रिय रचना है। शुद्धात्म तत्त्व की इतनी स्पष्ट विवेचना अन्यत्र दुर्लभ है। संसार के वास्तविक स्वरूप का दिग्दर्शन कराते हुये आत्मा की शुद्धातिशुद्ध अवस्था का निरूपण अत्यंत स्पष्टता और युक्तियों के साथ किया है।

इस ग्रंथ में 310 दोहे-सोरठा , 245 सवैया इकतीसा , 86 चौपाई , 37 सवैया तेईसा , 20 छप्पय , 18 कवित्त , 7 अडिल्ल और 4 कुंडलियाँ हैं। कुल मिलाकर 727 छंद हैं। इस कृति में कवि ने भावों के पात्र खड़े किये हैं। जीव , अजीव , आस्रव , बंध , संवर , निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व ही अभिनय करने वाले पात्र हैं। भावों का नाटकीय ढ़ंग से चित्रण करने केे कारण ही इसके साथ नाटक शब्द जोड़ा गया है। और समयसार शब्द आत्मा यानि स्वयं के लिये है , इस प्रकार इस कृति का नाम ‘समयसार नाटक’ सार्थक है।

‘आचार्य प्रवर कुन्दकुन्द’ का ‘समयप्राभृत’ , ‘आचार्य अमृतचंद्र’ की ‘आत्मख्याति’ संस्कृत टीका , और ‘पं. राजमल’ कृत भाषा टीका इन तीनों ग्रंथों के आधार पर ही कविवर बनारसीदास जी ने इस ग्रंथ की रचना की है।

स्वतः स्पष्ट है उपर्युक्त तीनों ग्रंथों का आधार होने से यह कृति कविवर बनारसीदास जी की मौलिक कृति तो नहीं है , परन्तु कवि ने उन भावों का सारमात्र लेकर अपनी काव्य प्रतिभा से इस कृति को इतना रोचक बना दिया कि वह कृति मूलाधारों से भी बढ़कर प्रतीत होती है। पग-पग पर सुंदर दृष्टांत देकर उसे और भी सुगम कर दिया। कवित्व की दृष्टि से उनकी ये रचना अपूर्व है।

मूल ग्रंथों जो विषय नहीं थे उनका भी प्रतिपादन कवि ने इसमें किया। जिन गुणस्थानों का समुचित ज्ञान न होने से कविवर बनारसीदास जी 12 वर्ष तक अंधेरे में रहे , उन गुणस्थानों का बहुत ही सुंदर और विस्तृत विवेचन कवि ने इस कृति में किया।

भाषा , भाव , विषय और प्रतिपादन शैली हर दृष्टि से ये कृति बेजोड़ है। अध्यात्मिक कवि होने से सर्वत्र आत्मानुभूति को ही सर्वोपरि स्थान दिया। आत्म अनुभव को मुक्ति का मार्ग ही नहीं मोक्षस्वरूप ही माना। कविवर बनारसीदास जी लिखते हैं :

अनुभव चिंतामणि रत्न,
अनुभव है रस कूप।
अनुभव मारग मोक्ष को,
अनुभव मोक्षस्वरूप।।

केवल अनुभव कहने से कहीं जीव लौकिक अनुभव में भ्रमित न हो जाय, इसलिये अनुभव का स्वरूप भी स्पष्ट किया :

वस्तु विचारत ध्यावतैं,
मन पावे विश्राम।
रस स्वादत सुख ऊपजै,
अनुभौ याको नाम।।

वस्तु से कवि का अभिप्राय निजात्मा से है और रसस्वाद से तात्पर्य आत्मानुभव से है — अर्थात् आत्मिक सुख की अनुभूति का नाम ही अनुभव है।

इस कृति का रचनाकाल आश्विन शुक्ला त्रयोदशी, रविवार, संवत् 1693 है। इस कृति की रचना आगरा में शाहजहाँ के शासनकाल के समय पूर्ण हुई थी।

कवि ने बाह्य क्रियाकाण्ड की अपेक्षा हमेशा ज्ञान को ही मुख्यता दी। उनका मानना है कि ग्यान बिना शिवपंथ न सूझै। वे लिखते हैं :

बहुविधि क्रिया क्लेश सौं,
शिवपद लहै न कोइ।
ग्यान कला परकाशसौ,
सहज मोखपद होइ।।
ग्यानकला घट-घट बसै,
जोग जुगति के पार।
निज निज कला उद्योत करि,
मुकत होइ संसार।।

यहाँ ज्ञान से कवि का आशय क्षयोपशम ज्ञान या शास्त्रज्ञान से नहीं, भेदज्ञान से है, क्यों कि भेदज्ञान ही वह साबुन है जिससे आत्मा को शुद्ध किया जा सकता है। वे लिखते हैं :

भेदग्यान साबू भयौ, समरस निर्मल नीर।
धोबी अंतरात्मा, धोवै निजगुण चीर।।

भेदग्यान संवर जिन पायौ।
सो चेतन शिवरूप कहायौ।।
भेदग्यान जिनके घट नाहीं।
ते जड़ जीव बंधै घट मांहीं।।

कहने का तात्पर्य यही हैं कि ‘नाटकसमयसार’ कवि की वह सर्वोत्कृष्ट रचना है जिसने इन्हें ‘आचार्य कुन्दकुन्द’ और ‘आचार्य अमृतचंद्र’ की बराबरी में लाकर खड़ा कर दिया।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि “कविवर बनारसीदास जी” असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे , उनके द्वारा रचित साहित्य अध्यात्म की रीढ़ है , उनका स्थान आध्यात्मिक जगत में सदैव अक्षुण्ण रहेगा।

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