“यह लेख श्री मति डॉ रंजना जैन, दिल्ली द्वारा लिखा गया है |”
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“कविवर बनारसीदास जी” का जीवन अत्यधिक उतार-चढाव से भरपूर रहा। पुण्य और पाप के उदय का जो सहज संयोग उनके जीवन में देखने को मिलता है वह अन्य किसी महापुरुष के जीवन में नहीं मिलता। कवि ने अपने जीवन में अत्यधिक कठिनाइयों का सामना किया फिर भी इतने आध्यात्मिक ग्रंथों का सृजन कवि की धैर्यता का सहज परिचायक है। इनकी जीवन यात्रा को जो भी पढ़ता हैं वो एक बार सोचने को जरूर विवश होता है कि प्रतिकूलताओं का इतना तीव्र उदय होने पर भी वे इतने सहज और सरल ह्रदय कैसे थे ?
आइये जानते हैं उनकी जीवनगाथा उन्हीं की जुबानी….
वंश परिचय :
मध्य भारत में रोहतकपुर के पास बिहोली नाम का एक गाँव है , वहाँ पहले राजवंशों के राजपूतों की बस्ती थी। एक दिन उस गाँव में एक मुनिराज का आगमन हुआ। मुनिराज के पावन चरित्र और सरल स्वभाव एवं उपदेशों से प्रभावित होकर वहाँ के सभी लोगों ने जैनधर्म को अंगीकार किया। और पंच नमस्कार मंत्र की माला धारणकर अपने गाँव के नाम पर अपना गोत्र बीहोलिया रखा।
कविवर बनारसीदास जी के शब्दों में :
याही भरत सुखेत में , मध्य देश शुभ ठाँव।
बसै नगर रोहतगपुर , निकट बिहोली गाँव।।
गाँव बिरोली में बसे , राज वंश रजपूत।
तै गुरू मुख जैनी भये , त्यागि करम अघभूत।।
पहिरी माला मंत्र ली , पायौ कुल श्रीमाल।
थाप्यो गोत विहोलिया , बीहोली रखपाल।।
इस प्रसिद्ध बीहोलिया कुल की विशाल परम्परा में अनेक धर्मात्मा और विद्वान पुरुष हुये। इनमें से एक “मूलदास” थे जो “कविवर बनारसीदास जी” के पितामह थे। “मूलदास जी” के दो पुत्र हुये एक का नाम “खडगसेन” और दूसरे का नाम “घनमल” था। दुर्भाग्यवश “घनमल” तीन वर्ष की अल्पायु में शांत हो गया। “मूलदास जी” पोते के निधन को सहन नहीं कर पाये और वो भी शांत हो गये। “मूलदास जी” के जाने के बाद उनकी बेसहारा विधवा पत्नी अपने पुत्र को लेकर अपने पिता के घर आ गई। धीरे धीरे समय बीतता गया और एक दिन “खडगसेन” का विवाह मेरठ के “सूरदास जी श्रीमाल” की पुत्री से हुआ। संवत 1635 में “खडगसेन” के घर पुत्र का जन्म हुआ , घर में खुशियाँ छा गई। लेकिन दस दिन में ही उस पुत्र का देहांत हो गया। सारी खुशियाँ मातम में बदल गई।
संवत 1637 में “खडगसेन” पुत्र प्राप्ति की इच्छा से सती की यात्रा करने गये। पर दुर्भाग्यवश रास्ते में चोरों के हाथ सब कुछ लुटा बैठे। “कविवर बनारसीदास जी” इस संबंध में लिखते हैं :
गये हुते माँगन को पूत,
यहु फल दीनों सती अऊत।
तउ न समझै मिथ्या बात,
फिर मानी उनहीं की बात।।
प्रगट रूप देखें सब सोग,
तउ न समझै मूरख लोग।।
कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य के परिणाम कितने विचित्र होते हैं , कि दुख और निराशाजनक विपाक(फल) देख लेने पर भी इसका लोभी मन नहीं मानता।
संवत् 1643 में पुनः पुत्र लाभ की आशा में “खडगसेन” ने सती की यात्रा की। और इस बार इनकी इच्छा पूरी भी हो गई। आठ वर्ष के पश्चात इनके घर पुनः पुत्र का जन्म हुआ , अपार उत्सव मनाया गया। इनकी जन्मतिथि और जन्मनाम के संबंध में ये छंद द्रष्टव्य है —
संवत सोलह सौ तेताल,
माघ मास सित पक्ष रसाल।
एकादशी वार रविनन्द,
नखत रोहिणी वृष को चंद।।
रोहिनी तृतिय चरन अनुसार,
खरगसेन घर सुत अवतार।
दीनों नाम विक्रमाजीत,
गावहिं कामिनि मंगल गीत।।
अर्थात् “कविवर बनारसीदास जी” का जन्म संवत 1643 , माघ शुक्ल एकादशी , रविवार तृतीय चरण रोहिणी तथा वृष के चंद्रमा में हुआ। उस समय इनका नाम विक्रमाजीत रखा गया।
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बनारसीदास नाम कैसे पढा ?
जब बालक “विक्रमाजीत” छह-सात महिने का हुआ , तब “खडगसेन” परिवार सहित “पार्श्वनाथ” की यात्रा करने काशी गये। बड़े भक्ति भाव से पूजन किया , और बालक को प्रभु के चरणों में रखकर उसके दीर्घायु होने की प्रार्थना की :
चिरजीवि कीजै यह बाल,
तुम शरनागत के रखपाल।
इस बालक पर कीजै दया,
अब यह दास तुम्हारा भया।।
उस समय वहाँ मंदिर का पुजारी खड़ा था , वह बनावटी ध्यान लगाकर बोला — “भगवान पार्श्वनाथ के यक्ष ने मुझे संकेत किया है कि ये बालक दीर्घायु होगा।” और बालक के नाम के बारे में उसने कहा :
जो प्रभु पार्श्व जन्म को गाँव,
सो दीजै बालक को नांव।
तो बालक चिरजीवी होय,
यह कहि लोप भयो सुर सोय।।
मायावी पुजारी की इस मायात्मक बात को सही मानकर “खडगसेन” ने अपने पुत्र का नाम “बनारसीदास” रख दिया। धीरे धीरे दूज के चंद्रमा की तरह बालक बढ़ने लगा। लेकिन पूर्वकर्मोदयवश पाँच साल की अल्पायु में “बनारसीदास जी” को संग्रहणी (एक बीमारी) ने घेर लिया। एक वर्ष तक भारी वेदना सहकर ठीक हुये कि शीतला माता का प्रकोप हुआ ( जिसे आज हम चेचक कहते हैं )। इस प्रकार लगभग दो वर्ष तक का समय भयंकर वेदना में व्यतीत हुआ।
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शिक्षा :
भयंकर बीमारी से जर्जर होने के बाद भी बालक “बनारसीदास जी” को विद्याध्ययन के लिये गुरू के आश्रम में भेज दिया गया। “बनारसीदास जी” की बौद्धिक क्षमता अत्यधिक होने से अल्प समय में ही पर्याप्त ज्ञान प्राप्त किया। कवि के शब्दों में :
आठ बरस कौ हुऔ बाल,
विद्या पठन गयौ चटसाल।
गुरू पांडे से विद्या सिखै,
अक्सर वांचे लेख लिखै।।
बरस एक लौं विद्या पढी,
दिन-दिन अधिक-अधिक मति बढ़ी।
विद्या पढी हूऔ बितपन्न,
संवत् सोलह सै बावन्न।।
अभी शिक्षार्जन करते हुये एक साल ही बीता था कि 9 वर्ष की अल्पायु में ही “बनारसीदास जी” की सगाई हो गई। और दो वर्ष बाद सन् 1654 में विवाह भी हो गया। विवाह के बाद पारिवारिक जिम्मेवारी के चलते यद्यपि पढाई के लिये समय नहीं मिलता था फिर भी 14 वर्ष की उम्र तक कवि ने अनेकार्थ-नाममाला , ज्योतिषशास्त्र , अलंकार आदि शास्त्रों का अध्ययन किया। फिर आगे चलकर अध्यात्म के प्रखर पंडित ‘भानूचंद्र जी’ से विविध शास्त्रों का अध्ययन किया।