दर्शन स्तुति (अति पुण्य उदय) | With Meaning in English & Hindi

कभी-कभी हम केवल अर्थ जाने बिना स्तुति पढ़ते हैं, लेकिन जब हम इसका अर्थ जानते हैं तो यह हमारे लिए फायदेमंद होगा। इसलिए, मैंने छंदों का अर्थ लिखा है जिन्हे भगवान की पूजा करते समय गाया जा सकता है। इस स्तुति का अर्थ पढ़ें और पढ़ते समय अर्थ याद रखें।

Sometimes we just read stutis without knowing their meaning but it will be beneficial for us only when we know its meaning. So, I have written the meaning of verses that can be sung while worshipping God. Do read the meaning and remember it at the time of reading this stuti.

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”अति पुण्य उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन पाया।
अब तक तुमको बिन जाने, दुख पाये निज गुण हाने॥”

हे प्रभु ! अब मेरा महान पुण्य का आया है जो मुझे आपका दर्शन मिला | आपको बिना जाने अब तक मैंने बहुत दुःख भोगे हैं |

Oh, Lord! My great virtue has come now that I have got to see you. I have suffered a lot without knowing you.

”पाये अनंते दु:ख अब तक, जगत को निज जानकर।
सर्वज्ञ भाषित जगत हितकर, धर्म नहिं पहिचान कर॥”

मैंने आज तक इस जगत को अपना मानकर अनंत दुःख पाएं हैं | सर्वज्ञ प्रभु की वाणी में जो जगत को हितकर ऐसा धर्म का स्वरुप आया है उसको मैंने नहीं पहचाना |

I have endured a lot of unhappiness by knowing this world as mine. I have not recognized the religion which is beneficial to the world that has been preached in the voice of Omniscient Lord.

”भव बंधकारक सुखप्रहारक, विषय में सुख मानकर।
निजपर विवेचक ज्ञानमय,सुखनिधिसुधा नहिं पानकर॥”

भव का बंधन करने वाले और सच्चे सुख को मिटाने वाले विषयो में ही सुख माना है | निज-पर को जानने वाला ज्ञान जो सुख रूपी अमृत है उसे मैंने आज तक नहीं पिया |

I have always considered happiness in the material things which increase my births and destroy my true happiness. I have not drunk the nectar of knowledge till now.

”तव पद मम उर में आये, लखि कुमति विमोह पलाये।
निज ज्ञान कला उर जागी, रुचिपूर्ण स्वहित में लागी॥”

अब आपके चरणों में आकर मेरी कुमति भाग गयी है | अब मेरे निज ज्ञान रूपी कला जागी है और मेरी रूचि अपने हित में लगी है |

Now my false knowledge has cleared out after coming in your feet. My art of knowledge has roused and my interest has started to deviate towards my benefit.

”रुचि लगी हित में आत्म के, सतसंग में अब मन लगा।
मन में हुई अब भावना, तव भक्ति में जाऊँ रंगा॥”

अब मेरी रूचि आत्मा के हित में लगी है | अब मेरा मन सत्संग में लगने लगा है | मेरे मन में ऐसी भावना हुई है की मैं आपकी भक्ति में रंग जाऊ |

My interest has moved towards my soul’s benefit. My mind seems to be in good company. I have a feeling of devotion towards you. 

”प्रिय वचन की हो टेव, गुणीगण गान में ही चित पगै।
शुभ शास्त्र का नित हो मनन, मन दोष वादन तैं भगै॥”

मै हमेशा मीठे वचन बोलूं और गुणीजनो के गान में ही मेरा मन लगे | शुभ अर्थात वीतरागी शास्त्रों का हमेशा पठन हो और मेरे मन के दोष/विकार भागें |

I should always speak sweetly and about the good people. I should always study veetragi books and the defects of my mind shed away.

“कब समता उर में लाकर, द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर।
ममतामय भूत भगाकर, मुनिव्रत धारूँ वन जाकर॥”

हे प्रभु ! मेरा वह दिन कब आएगा जब मैं समता धारण करके बारह भावनाओ का चिंतन करूंगा और ममता रूपी भूत को भगाकर मुनिव्रत धारण करूंगा |

Oh God! When will the day come when I will think about twelve supreme thoughts and ravish the affection after becoming a saint.

“धरकर दिगम्बर रूप कब, अठ-बीस गुण पालन करूँ।
दो-बीस परिषह सह सदा, शुभ धर्म दश धारन करूँ॥”

कब मैं दिगंबर मुनि दशा धारण करके २८ मूल गुणों का पालन करूंगा और २२ परिषह सहन करते हुए दश धर्मो को धारण करूंगा ?

When will I follow the twenty-eight characteristics and bear the twenty-two sorrows while holding the ten virtues?

“तप तपूं द्वादश विधि सुखद नित, बंध आस्रव परिहरूँ।
अरु रोकि नूतन कर्म संचित, कर्म रिपुकों निर्जरूँ॥”

१२ प्रकार का तप जो सुखकारी है, उसे धारण करके आश्रव-बंध को रोकूँगा और नए कर्मो का संवर करके पुराने कर्मो की निर्जरा करूंगा |

I will stop the bondage of karma and shed the old karma by bearing twelve type of penance which gives happiness.

“कब धन्य सुअवसर पाऊँ, जब निज में ही रम जाऊँ।
कर्तादिक भेद मिटाऊँ, रागादिक दूर भगाऊँ॥”

मेरा वह शुभ दिन कब आएगा जब मैं निज आत्मा में ही रम जाऊँगा ? कर्त्ता-कर्म का भेद मिटा कर राग-द्वेष-मिथ्यात्व को दूर भगाऊंगा |

When will the auspicious day come when I will be engrossed in my soul? I will shed away the feelings 0f love and hatred.

“कर दूर रागादिक निरंतर, आत्म को निर्मल करूँ।
बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल,लहि चरित क्षायिक आचरूँ॥”

ऐसे ही निरंतर रागादि को दूर करते हुए आत्मा में निर्मलता लाऊ | अनंत ज्ञान दर्शन वीर्य और सुख को धारण कर क्षायिक चरित्र का आचरण करूं |

In such a way, by constantly removing the love-hatred, the soul will be immaculate. I will follow the right character by adopting infinite wisdom, philosophy, bravery, and happiness.

“आनन्दकन्द जिनेन्द्र बन, उपदेश को नित उच्चरूं।
आवै ‘अमर’ कब सुखद दिन, जब दु:खद भवसागर तरूँ॥”

आनंदकारी जिनेन्द्र पद को प्राप्त कर हितकारी उपदेश दूँ | कब वह दिन आएगा जब मै इस दुखकर भव रूपी सागर से तिरूँगा ?

May I become Jinendra and give beneficiary advice. When will that day come when I will pass over the sea of sufferings of this birth-death cycle?

 

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