जीवन में जैन धर्म

विषय सूची:

  1. संयोग के वियोग में दुखी कैसे न हो ?
  2. आत्मिक सुंदरता कैसे देखें?
  3. घूमने की अभिलाषा कैसे दूर करें ?
  4. जन्मदिन के दिन क्या विचारें?
  5. मरण भय से छूटने का उपाय
  6. अपने आप को useless न समझें
  7. जैन कर्म से बने या सिर्फ नाम से?
  8. क्या कोई किसी की सेवा कर सकता है?
  9. स्वाध्याय के लिए समय नहीं है तो ये पढ़ें
  10. अकेलापन कैसे महसूस न करें?

संयोग के वियोग में दुखी कैसे न हो ?

जब किसी प्रिय व्यक्ति या वस्तु का वियोग हो जाता है तो हम बहुत दुखी हो जाते हैं | चाहे वह किसी वस्तु का चोरी होना, खोना या टूट जाना हो, या किसी व्यक्ति का मरण, उसका हमसे राग कम हो जाना हो – हम चाहते हैं कैसे भी करके ये संयोग बना रहे, इसका वियोग न हो इसलिए हम दिनरात प्रयत्न करते रहते हैं |
कभी-कभी राग की तीव्रता अधिक होने से हम रोने भी लग जाते हैं |

ऐसे में कुछ बिंदु हम चिंतन करें तो दुःख कम लगेगा और नवीन कर्म बंध भी कम होगा |

  1. संयोगों का वियोग निश्चित है | “संयोग है सर्वत्र फिर भी साथी नहीं संसार में”
  2. मैं तो अकेला आया था अकेले ही जाऊंगा | फिर किससे राग करूं ? किसको साथ ले जाने का भाव रखूं ? किसके साथ रहने का भाव करूं ?
  3. ये जो पर में मुझे इष्टापना लग रहा है वह मेरे राग के कारण है | राग तो आत्मा को जलाने वाली अग्नि है | अब इस राग को मैं तोड़ दूँ |
  4. किसी के आने से मुझमे न कुछ बड़ा था, न उसके जाने से मेरा कुछ घटा है | फिर मैं किस बात की चिंता करूं?
  5. जो व्यक्ति या वस्तु मुझे आज प्रिय लग रही है वह मुझे उसमें सुख मानने के कारण लग रही है | क्या मेरा सुख इतना हल्का है की वह किसी के रहने न रहने से हो? मेरा सुख तो मुझमे मुझसे ही होता है | पर से सुख की कल्पना करना व्यर्थ है |
  6. क्या मेरे दुखी होने से वह वापिस आ सकता/सकती है? जो वस्तु मेरी कभी थी ही नहीं उसके लिए अपने परिणाम कलुषित करके नवीन कर्म बंध करना क्या मूर्खता नहीं है?
  7. मैं रोज पढता हूँ – “संतुष्ट निज में ही रहूं नित आप सम भगवन” | फिर मुझे असंतोष क्यों हो रहा है?
  8. किसी इष्ट व्यक्ति या वस्तु का हमारे साथ रहना पुण्य का उदय था | अब वह उदय खत्म होने से वह भी चला गया | इस तुच्छ पुण्योदय की मुझे क्या इतनी दरकार है?
  9. अनित्य संयोगों में नित्य की कल्पना रूप मोह अनन्त क्लेश का कारण है ।
  10. मुनिराजों को देखो – वे तो सब संसार का त्याग करके स्वयं में लीन होकर सुख का वेदन कर रहे हैं | और यहां मैं एक छोटे से संयोग के लिए दुखी हो रहा हूँ ? धिक्कार है मुझे!

इस प्रकार अनेक तरीके से विचार करने पर संयोगों में सुख बुद्धि कम होते हुए छूट जाती है |


आत्मिक सुंदरता कैसे देखें?

एक दिन हमारी कक्षा में नाम कर्म का विषय चल रहा था | जीव को कैसा शरीर मिलेगा, कितनी लम्बाई, रंग, मोटापा आदि सब कुछ नाम कर्म पर निर्भर करता है | मैंने काफ़ी लोगो को शादी की बात करते समय दूसरे व्यक्ति को केवल इसलिए इंकार करते देखा है क्यूंकि उन्हें सूरत नहीं पसंद आयी | हमारे समाज की यही बिडम्बना है जहां गोरे को सुन्दर और काले को बदसूरत माना जाता है |

बहू गोरी चाहिए चाहे गुण एक भी न हो | पति हीरो जैसा होना चाहिए चाहे फिर वह गलत आदतों का शिकार क्यों न हो | हमारी सोच शरीर तक ही सीमित है | हम इस चमड़ी को ही देखते हैं | बॉलीवुड हो, फैशन हो, मेकअप हो सब कुछ इसी के कारोबार में लगे हैं |

नाम कर्म की प्रकृति को समझने से सबसे बड़ा फायदा ये है की आप फिर किसी की विकलांगता, उसके रंग-रूप का मजाक नहीं बनाओगे | आप दूसरों की चमड़ी नहीं उनके गुण देखोगे | उनकी आत्मा की सुंदरता, उनके गुण दिखते ही आप पाओगे की जिसे आज तक आप देख रहे थे वह तो व्यक्ति था ही नहीं | उस व्यक्ति की पहचान उसके गुणों से करोगे |

चलो कभी आपको शारीरिक सुंदरता प्राप्त भी हो गयी तो क्या वह हमेशा रहेगी? बुढ़ापा सबको आया है, हमें भी आएगा | शरीर से इंसान बूढ़ा हो जाता है पर उसकी आत्मा वहीं रहती है | उसके गुण भी वैसे ही रहते हैं |

इसलिए सामने वाले व्यक्ति की आत्मिक सुंदरता देखें, शारीरिक नहीं | कीचड़ को देख के खुश न हो, कमल तो उससे सदा भिन्न ही रहेगा |


घूमने की अभिलाषा कैसे दूर करें ?

घूमने के चलते कुछ घरों में झगड़े भी होते हैं की कही घूमने नहीं ले जाते । इस क्लेश का निवारण कैसे करें?

1.अनादि काल से संसार में परिभ्रमण कर करके एक परमाणु नहीं बचा जहाँ हम न गए हों।

2. जिन्हें ज्यादा घूमने का विकल्प चलता रहता है वे संसार में घुमाने वाले कर्म बांध लेते हैं। ड्राइवर आदि की जॉब इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

3. घूमने से आंखों के विषय कुछ समय के लिए जरूर पूरे हो सकते हैं, पर क्या आज तक किसी को घूमने से तृप्ति मिली है? क्या उसने और नहीं चाहा?

4. घूमने जाना ही है तो अपने तीर्थों पर भी जाएं। हमारे अधिकतम तीर्थ पहाड़ो, वनों में ही है। जिसमे आपकी ट्रैकिंग, पिकनिक तो स्वतः ही हो जाती है। पर ये लक्ष्य कभी नहीं होना चाहिए जब तीर्थ क्षेत्र पर जाए।

5. अभी हम गृहस्थ हैं तो हमें सैर-सपाटे के विकल्प आते हैं।limit में हर चीज़ अच्छी लगती है। अगर आप घूमते ही रहोगे तो घर बर्बाद हो जाएगा और आत्म कल्याण भी नहीं हो पायेगा। इसलिए सीमा निर्धारित करें।


जन्मदिन के दिन क्या विचारें?

Birthdays को लेकर हम काफी excited रहते हैं। पर सोचने वाली कुछ बातें हैं कि आखिर जन्म हुआ किसका है? एक साल और बीत गया तो फिर किस बात की खुशी? मैंने इन्हीं कुछ सवालों के जबाब स्वयं को दिए:

1. मैं तो वह चैतन्य तत्त्व हूँ जिसका न कभी जन्म हुआ और न वह कभी मरण को प्राप्त हुआ। जब जन्म नहीं तो जन्मदिन कैसा?

2. जन्मदिन तो इस शरीर के साथ संयोग में आत्मा आया उसका नाम है। क्या ये संयोग मुझे इतना प्रिय है कि मैं मनाऊं?

3. जन्मदिन को जन्मजयंती, जन्मकल्याणक में जिन महान आत्माओं ने बदला उनका ही जन्म सार्थक हुआ है। क्या मैंने अब तक जन्ममरण का अभाव करने के लिए कुछ किया? फिर मैं किस बात का celebration करूँ?

4. आज मेरे आयु का एक साल और पूर्ण होगया। मैंने इस अमूल्य भव का एक साल और बिना आत्मानुभव के बर्बाद कर दिया। क्या मैं मरनदिन पास आने की खुशी मनाऊ?

5. जन्म तो अनादि काल से करती ही आ रही हूं। निगोद में तो एक स्वाँस  में 18 बार जन्म मरण किया है। ऐसी दुखदायी process को कैसे मनाऊं?

6. जब मेरा जन्म हुआ था तो मेरी माता को कितना दुख सहन करना पड़ा था, फिर उनके उस दिन के दुख को याद दिलाने वाला यह दिन अच्छा कैसे हुआ?

7. Celebration के तरीकों में क्या पार्टी मनना ही उचित है? क्यों न आज का दिन प्रभु की पूजन भक्ति करूँ, उनके समान बनने की भावना भाउ, चिंतन करूँ?

8. उसने मुझे wish नहीं किया,मैंने उसको किया था। क्या किसी के बधाई देने न देने से मेरे पास कुछ कम ज्यादा हुआ?

9. चलो status डाल कर सबको बता देते हैं कि मुझे कितने लोग wish करते हैं,मेरी कितनी कीमत है लोगो को।क्या सच मे इससे कुछ जीवन मे बदलता है या यह बस मान बड़ाई का साधन है?

इस प्रकार से अनेक विचार किये तो जन्मदिन में कुछ खास नहीं लगा। यह भी एक सामान्य दिन मुझे लगा।


मरण भय से छूटने का उपाय

जैनागम में सात भय कहे गए हैं। उनमें मरण भय प्रायः सभी अज्ञानी जीवों को होता है। आपको और मुझे भी है। कोई मरण की बात करे तो उसे ‘कैसी अपशगुनी बात कर रहे हो’ कहकर चुप करा देते हैं।सत्य सबको पता है कि एक दिन मरना है फिर उससे डरना क्यों?

1.क्या हमें नहीं पता हम आत्मा हैं, शरीर नहीं? वह आत्मा जो अजर-अमर-अविनाशी है । जिसका तीन लोक तीन काल में कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता।

2. क्या हमें आयु कर्म की जानकारी नहीं है? वह आयु कर्म जिसके रहने से इस शरीर का संयोग है चाहे कुछ भी हो जाए। आयु रहते हुए कोई मार के तो बताए।

3. क्या हमें शरीर-संयोगों का राग नही छूट रहा? हम शरीर नहीं छोड़ना चाहते इसका अर्थ हम यहाँ मिले संयोगों में रम चुके हैं। कब तक इनका राग करते रहेंगे?

4. कहीं मरण के भय से जीना तो नहीं छोड़ दिया?भविष्य की चिंता में वर्तमान में परिणाम आकुल-व्याकुल करके दोनों समय खराब कर दिए।

5. कोई हमें चाकू न मार दे, कही हमारा accident न हो जाए और हम मर न जाए ! क्या हमें हमारे पुण्य पर भरोसा नहीं रहा? पुण्य के रहते कौन हमें हाथ भी लगाने में समर्थ है?

6. मरण तो अनंत बार किया है। अबकी बार इसके नाश का उपाय करते हैं। इससे डरते नहीं है, इसे हरा देते हैं।

मरण को अपशगुन न मानें और इसकी तैयारी करें। इसे समाधिमरण में बदलें। इसकी बात करें क्योंकि इसका भय अब हमें नहीं है।
‘अब हम अमर भए, न मरेंगे’


अपने आप को useless न समझें

क्या आप कभी स्वयं को अप्रयोजनभूत/useless महसूस करने लगते हैं? कभी-कभी ये भी लगता है कि हमें कुछ नहीं आता, दूसरे लौकिक में हमसे बेहतर कर रहे हैं। हमसे ज्यादा कमा रहे हैं, ज्यादा नाम कर रहे हैं, अधिक क्षयोपशम ज्ञान वाले हैं। Inferiority complex आना बहुत ही common हैं।

इसे दूर करने के मेरे कुछ उपाय:

1. अपने आप को useless न समझें। आप वस्तुत्व गुण के धारी हैं। आपका कोई न कोई प्रयोजन जरूर है। धार्मिक दृष्टि से आपका जानना-देखना ही कार्य हैं । लौकिक दृष्टि से आप प्रयोजन बस ढूंढ नहीं पाए है, खोज जारी रखिये।

2. हम किसी से कम नहीं हैं। सबके पास जितना ज्ञान गुण है उतना ही हमारे पास है। एक भी गुण किसी का हमसे न ज्यादा है, न कम। बस हमारे ज्ञान का आवरण थोड़ा ज्यादा है उनका कम। साथ ही उनके पुण्य का उदय लौकिक में ज्यादा है। पर हमारा पुण्य भी कोई कम थोड़े है, महान जिनधर्म मिलना पैसे, नाम आदि बाह्य विभूति मिलने से कही अधिक पुण्य का उदय है। उनके पास एक भव का पुण्य है, हमारे पास भव से पार होने वाला पुण्य है।

3. मैं तो सिद्धों के समृद्ध परिवार से हूं। मेरे पास ज्ञान, दर्शन, चरित्र, वीर्य की संपत्ति है। मेरे चर्चे हर जिनवाणी में, दिव्यध्वनि में आते हैं। ऐसा आनंदमयी-ध्रुव अलौकिक आत्मा हूँ। आखिर वह भी सिद्धों के परिवार का और मैं भी। सब आत्मा ही तो हैं।

4. क्षयोपशम ज्ञान अधिक होने से कुछ नही होता। ज्ञान जब तक सम्यक न हो, तब तक 11 अंग, 9 पूर्व का ज्ञान भी व्यर्थ रहा। पर जब ज्ञान सम्यक हुआ तो शिवभूति मुनिराज जैसे मात्र ‘तुष मास भिन्नम’ से भी काम हो जाता है।

इसप्रकार अनेकों विचार किये जा सकते हैं।


जैन कर्म से बने या सिर्फ नाम से?

जैन घर में जन्म महाभाग्य की बात है। पर कितने जैनों को अपना भाग्य दिखाई दे रहा है? कितने जैन माता-पिता नवकार मंत्र, भक्तामर पाठ आदि अपने बच्चों को abcd के पहले याद करवाते हैं? कितने घरों में बच्चों को गानों की जगह लोरी और भक्ति सुनाई देती है?

कितने अभिभावकों ने पाठशाला को स्कूल की शिक्षा के समान या उससे उच्च व जरूरी माना है? कितने अभिभावक स्वयं जैन धर्म के सिद्धांतों से परिचित हैं? कितने जैन बच्चे होस्टल आदि में रह कर भी रात्रि में भोजन, कंदमूल आदि नहीं खा रहे हैं?

अपने दोस्तों के मजाक, भय, social pressure में न जाने कितने जैन लोगों ने रात में खाना, कंदमूल खाना, यहाँ तक कि शराब आदि नशे भी चालू कर दिए हैं। जिन्हें अब अहिंसा का मतलब नहीं पता, ऐसे कितने जैन आपको मिल जाएंगे आज।

मैं तो अजैनो को जैन बनाना ही नही चाहती कभी। पहले जैनों मे जैनत्व आजाये तो जैन धर्म बच सकता है। समाधिमरण सबको करना है, पर समाधिमरण के बारे में अपने बच्चों को शिक्षित कितने लोग कर रहे हैं?

सोशल मीडिया पर लड़ाई करके आज तो जीत जाएंगे आप। बचा लेंगे तीर्थ, पर उन तीर्थो को आपके जाने के बाद कौन सम्भालेंगे? जितने जैन आज जैन धर्म से दूर भाग रहे हैं, उसका सीधा-सा कारण संस्कारों की कमी है। वो संस्कार जो माता-पिता अपने बच्चों को देते है।

संपत्ति की सुरक्षा में वसियत सब लिख के जाते हैं। संस्कारों की सुरक्षा की वसीयत कौन लिखेगा? आज आप घर मे जिनवाणी इकट्ठी कर लोगे पर बच्चों को साथ बिठा के नही पढ़ाओगे, तो कल वो जिनवाणी पुस्तक संग्रह बन के रह जायेगी।

सोशल मीडिया पर जो भी करें, अपने घर मे संस्कारों में आग न लगने दें। वरना आपकी fame आपको छना पानी भी नहीं दे पाएगी अंत समय मे।


 क्या कोई किसी की सेवा कर सकता है?

मेरे ससुर जी हमेशा बोलते रहते हैं तुम मेरी इतनी सेवा करती हो। और मैं हमेशा ये ही जबाब देती हूं कि ये तो आपके पुण्य का उदय है, वरना मैं चाह के भी कुछ नहीं कर पाती। हमारी दोनों की काफ़ी चर्चाएं चलती ही रहती हैं।

मेरा ऐसा कहना इसलिए भी होता है ताकि कहीं किसी दिन मैं मान न कर बैठूं की मैं कितनी देखभाल करती हूं। कर्त्ता मानने की हमारी आदत यूं एक दिन में तो जाएगी नही, समय लगेगा। पहले तो बुद्धिपूर्वक विचार ही आएंगे। क्या पता बोलते बोलते ही सही, एक दिन अकर्त्ता हो जाएं!!

वैसे देखा जाए तो कौन किसकी सेवा-सुश्रुषा करने में समर्थ है? ये सब तो पुण्य के अधीन ही है। उनका पुण्य चल रहा है, तब तक मेरी भी अनुकूलता बनी हुई है, मुझे भी ऐसे भाव आ रहे हैं। पुण्य और अकर्त्तापना देखने पर मान आता ही नही।

छोटी-छोटी बातों से ही तो हम जिनवाणी की सीखें जीवन मे अपना सकते हैं।


 स्वाध्याय के लिए समय नहीं है तो ये पढ़ें

बहुत लोग बोलते हैं हमारे पास स्वाध्याय का समय नहीं है | हम एक घंटा बैठ के जिनवाणी नहीं पढ़ सकते | क्या आप जानते हो स्वाध्याय सिर्फ जिनवाणी वांचना का नाम नहीं है | उसका चिंतन तो हम लगातार कर सकते हैं | जानना चाहेंगे कब और कैसे?

वैसे तो चाहे आप 10 मिनट बैठो लेकिन प्रतिदिन जिनवाणी हाथ में लेकर विनय से स्वाध्याय करना चाहिए | पर भेद-विज्ञान के द्वारा स्वाध्याय हम निरंतर कर सकते हैं |

  1. जब पानी छानते हैं तब – उस समय चिंतन कर सकते हैं की देखो पानी के जीवों को जिन्हें कोई जीव मानने भी तैयार नहीं है | इन्होंने कैसे पाप किये थे जो ऐसी पर्याय मिली ! इन्होने भी कभी पानी छान के नहीं पिया होगा, जीवों पर करुणा नहीं की होगी |
  2. चलते समय – मुनिराज की ईर्या समिति को याद कर सकते हैं | ‘अहा! मुनिराजों की करुणा तो देखो चार हाथ जमीन देख कर चलते हैं | हम तो प्रमाद में कितनी हिंसा करते हैं | हमें मुनिराज की ईर्या समिति आज से ही अपना लेनी चाहिए |’
  3. खाना खाते समय – खाता कौन है ? ‘मैं आत्मा क्या कभी खा सकता हूँ ? ये रसनेंद्रिय के वश होकर मैं इस शरीर को विविध पकवान खिलाने की चेष्टा करता हूँ | इसपर विजय कैसे प्राप्त हो ? कब मैं अनशन, ऊनोदर आदि तप करूंगा?’
  4. नहाते वक्त – शरीर का मेल धोने से मेरे मन का मेल साफ़ नहीं होता, उसके लिए तो सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की वाणी अंतर में उतरनी पड़ेगी |
  5. ऑफिस या दुकान का काम करते समय – मैं अन्याय-अनीति से नहीं कमाऊंगा | अथवा पैसा तो पुण्य के उदय से ही आता है | वह पैसा जो जड़ है, धूल है | इसमें आत्मबुद्धि करने से मुझे क्या लाभ?
  6. जब मैं ये लिख रही हूँ तब – लिखने की क्रिया तो अक्षरों की हो रही है इसमें मैंने क्या लिखा? कम्प्यूटर पर मेरी उँगलियों का परिणमन स्वतंत्रता से हो रहा है | जब आचार्यों ने लिखने की क्रिया को जड़ कह दिया फिर हम तो उनकी कभी बराबरी नहीं कर सकते, तो हम क्यों लिखने का अभिमान करें ?

इसप्रकार हर समय हम स्वाध्याय कर सकते हैं | जरूरत है तो बस दृष्टि में भेद-विज्ञान लाने की |


अकेलापन कैसे महसूस न करें?

जब आप अकेले रहते हैं, तो अकेलेपन को संभालना मुश्किल होता है। आपको लगता है कि कोई भी वास्तव में आपकी परवाह नहीं करता है। आप कई बार अकेला भी महसूस कर सकते हैं। कोई आपके ठिकाने के बारे में नहीं पूछता है, आपने खाना खाया था या नहीं, आदि। बीमार होने पर भी आपको अपना ख्याल खुद रखना होगा।

ऐसा मेरे साथ ज्यादातर होता है। लेकिन मेरे पास कई छंद, स्तुति, पाठ हैं जो मुझे यह महसूस करने में मदद करते हैं कि मैं अपने आप में पूर्ण हूं और मुझे मेरी देखभाल करने के लिए वास्तव में किसी की आवश्यकता नहीं है।

मैं उनमें से कुछ को आपके साथ साझा करुँगी |

1. सामायिक पाठ: यह पाठ आचार्य अमितगति द्वारा संस्कृत में लिखा गया है और इसे हिंदी में अनुवादित किया है बाबू युगल किशोर जी ने | इसमें ३२ छंद हैं |

बाह्य जगत कुछ भी नहीं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं।
यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें॥(24)
अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास।
जग का सुख तो मृग तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ॥(25)
तन से जिसका ऐक्य नहीं हो, सुत, तिय, मित्रों से कैसे।
चर्म दूर होने पर तन से, रोम समूह रहे कैसे॥(27)

2. समता षोडशी: यह पाठ ब्र. श्री रविंद्र जी ‘आत्मन’ द्वारा लिखा गया है |

तुम स्वभाव से ही आनंदमय, पर से सुख तो लेश न हो।
झूठी आशा तृष्णा छोड़ो, जिन वचनों में चित्त धरो।।(5)

3.परमार्थ शरण: जब आप बहुत अधिक उम्मीद करना शुरू करते हैं, तो बस इस पाठ को पढ़ें।

अशरण जग में शरण एक, शुद्धातम ही भाई।
धरो विवेक ह्रदय में आशा, पर की दुखदाई।।

4. अपूर्व अवसर: यदि आप आज अकेले महसूस कर रहे हैं, तो नीचे की पंक्तियों का विचार कैसे करेंगे?

एकाकी विचरूंगा जब शमशान में,
गिरि पर होगा बाघ सिंह संयोग जब;
अडोल आसन और न मन में क्षोभ हो,
जानूँ पाया परम मित्र संयोग जब ॥

जब भी आप अकेलापन महसूस करते हैं तो आप ऐसे और पाठ गुनगुना सकते हैं। आप इस दुनिया में अकेले नहीं हैं, आप अपने आप में अनंत गुणों से भरी दुनिया हैं।

उन सिद्धों के बारे में सोचें जो अपनी आत्मा में शांति के साथ बिना किसी से बात किए, बिना किसी अपेक्षा के इस दुनिया से हमेशा के लिए दूर हो जाते हैं। अपनी आत्मा की विशेषताओं के बारे में सोचें जो आपका साथ देने के लिए पर्याप्त हैं चाहे आप इस दुनिया में कहीं भी हों।


नोट : यह सभी मेरे twitter और quora से संकलित किये गए हैं |