Top 10 Quotes by Pandit Shri Todarmal Ji

 

  • अहो! देव-गुरु-धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं, इनके आधारसे धर्म है। इनमें शिथिलतारखनेसे अन्य धर्म किस प्रकार होगा? इसलिये बहुत कहनेसे क्या? सर्वथा प्रकारसे कुदेव-कुगुरु-कुधर्मका त्यागी होना योग्य है।
  • देखो, तत्त्वविचार की महिमा ! तत्त्वविचार रहित देवादिक की प्रतीति करे, बहुत शास्त्रों का अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरण आदि करे, उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नहीं; और तत्त्वविचारवाला इसके बिना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है।
  • परद्रव्य कोई जबरन् तो बिगाड़ता नहीं है, अपने भाव बिगड़े तब वह भी बाह्य निमित्त है। तथा इसके निमित्त बिना भी भाव बिगड़ते हैं, इसलिये नियमरूपसे निमित्त भी नहीं है। इस प्रकार परद्रव्यका तो दोष देखना मिथ्याभाव है, रागादि भाव ही बुरे हैं।
  • हिंसामें प्रमाद-परिणति मूल है और विषयसेवनमें अभिलाषा मूल है |
  • जिस प्रकार बड़े दरिद्रीको अवलोकनमात्र चिन्तामणिकी प्राप्ति हो और वहअवलोकन न करे, तथा जैसे कोढ़ीको अमृत-पान कराये और वह न करे; उसी प्रकार संसार-पीड़ित जीवको सुगम मोक्षमार्गके उपदेशका निमित्त बने और वह अभ्यास न करे तो उसके अभाग्यकी महिमा हमसे तो नहीं हो सकती। उसकी होनहार ही का विचार करने पर अपनेको समता आती है।
  • अमूर्तिक प्रदेशोंका पुंज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणोंका धारी अनादिनिधन वस्तु आप है; और मूर्तिक पुद्गलद्रव्योंका पिण्ड प्रसिद्ध ज्ञानादिकोंसे रहित जिनका नवीन संयोग हुआ ऐसे शरीरादिक पुद्गल पर हैं; इनके संयोगरूप नानाप्रकारकी मनुष्य, तिर्यंचादिक पर्यायें होती हैं — उन पर्यायोंमें अहंबुद्धि धारण करता है, स्व-परका भेद नहीं कर सकता, जो पर्याय प्राप्त करे उस ही को आपरूप मानता है।
  • जो जीव कपटसे आजीविकाके अर्थ, व बड़ाईके अर्थ, व कुछ विषय-कषाय-समबन्धी प्रयोजन विचारकर जैनी होते हैं; वे तो पापी ही हैं। अति तीव्र कषाय होने पर ऐसी बुद्धि आती है। उनका सुलझना भी कठिन है। जैनधर्मका सेवन तो संसार नाशके लिये किया जाता है; उसके द्वारा सांसारिक प्रयोजन साधना चाहते हैं वे बड़ा अन्याय करते हैं। इसलिये वे तो मिथ्यादृष्टि हैं ही।
  • अपने प्रयोजनभूत मोक्षमार्गके, देव-गुरु-धर्मादिकके, जीवादितत्त्वोंके, तथा निज-परकेऔर अपनेको अहितकारी-हितकारी भावोंके — इत्यादिके उपदेशसे सावधान होकर ऐसा विचारकिया कि अहो! मुझे तो इन बातोंकी खबर ही नहीं, मैं भ्रमसे भूलकर प्राप्त पर्यायमें ही तन्मय हुआ; परन्तु इस पर्यायकी तो थोड़े ही कालकी स्थिति है; तथा यहाँ मुझे सर्व निमित्त मिले हैं, इसलिये मुझे इन बातोंको बराबर समझना चाहिये, क्योंकि इनमें तो मेरा ही प्रयोजन भासित होता है।
  • तत्त्वनिर्णय न करनेमें किसी कर्मका दोष है नहीं, तेरा ही दोष है; परन्तु तूस्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिकको लगाता है; सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सम्भव नहीं है।
  • इस वर्तमानकालमें अध्यात्मरसके रसिकबहुत थोड़े हैं। धन्य हैं जो स्वात्मानुभवकी बात करते हैं। जिस जीवने प्रसन्न चित्तसे इस चेतनस्वरूप आत्माकी बात भी सुनी है, वह निश्चयसे भव्य है। अल्पकालमें मोक्षका पात्र है।